- श्रद्धांजलि सभा का आयोजन कल सोमवार दोपहर 2:00 बजे से वासुदेव मिश्र विद्यालय मोती झील चौराहा पर
कानपुर नगर। शनिवार 01नवम्बर 2025 (सूत्र/संवाददाता) सूर्य दक्षिरायण, कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की दसमी तदुपरि एकादशी शरद ऋतु २०८२ कालयुक्त नाम संवत्सर। कानपुर के वरिष्ठ श्रमिक नेता ज्ञानेंद्र मिश्रा शहर के मजदूर आंदोलन और ट्रेड यूनियन राजनीति में एक प्रमुख नाम थे। उनके भतीजे संतोष मिश्रा के अनुसार दिनांक 23.10.25 को रात पौने 12 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। सनातन परंपरा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार अगले दिन भैरव घाट में सम्पन्न हो गया। अंतिम समय में पुत्र भतीजे आदि ने खूब सेवा की।
स्व ज्ञानेन्द्र मिश्रा की श्रद्धांजलि सभा का आयोजन 3 नवंबर सोमवार दोपहर 2:00 बजे से वासुदेव मिश्र विद्यालय मोती झील चौराहा अशोक नगर, कानपुर पर किया गया है जिसमें देश की कई विभूतियां श्रद्धांजलि देने के लिए सम्मिलित होंगी।
ट्रेड यूनियन नेता ज्ञानेंद्र मिश्रा जी ज्ञान के भंडार थे उन्होंने शुरुआती दौर के कई पत्रकारों को अपना सानिध्य दिया जिसके चलते आज वह देश के नामी और सफल पत्रकार बने ऐसे ही एक पत्रकार जो अपना संस्मरण बताते हुए कहते हैं कि मुझसे उनका पुराण परिचय रहा। मेरे पत्रकारीय जीवन के दूध के दांत टूटे ही थे कि मैं उनके सम्पर्क में आ गया था। श्रम एवं उद्योग बीट की रिपोर्टिंग के काल खंड में उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। कारखाना अधिनियम से लेकर बोनस, ईएसआई, मुआवजा, ट्रेड यूनियन एक्ट आदि की बारीकियां मुझे मदद देती थीं।
श्रमायुक्त कार्यालय का ढांचा और मजदूर हिट पर काफी प्वाइंट बताया करते थे। कपड़ा मिलों से लेकर हर प्रकार के उद्योगों की लड़ाई में ज्ञानेंद्र मिश्रा चाचा आगे-आगे रहते थे। सलाहें देते थे। घुटने नीचे तक का कुर्ता, अलीगढ़ पजामा कभी भी गांधी टोपी उनकी खास पहचान थी। सम्पूर्णानन्द एवार्ड, के के पांडे एवार्ड की लड़ाइयां मज़दूरहित में लड़ीं। रेल रोको आदोंलन व उससे आगे की लड़ाइयां भी उन्होंने ट्रेड यनिओं नेताओं व मजदुरों के साथ मिलकर लड़ीं। जेके कॉटन मिल वर्कर्स की बोनस (17%) की लड़ाई का आंदोलन का नेतृत्व करके सरमायेदारों के फलों उन्होंने ख़ौफ़ पैदा कर दिया था। गेट मीटिंगों में उनका जुमला, 'अगर मजदूरिन की यह लड़ाई हार गया तो कुर्ता पाजामा टोपी त्यागकर गांव चला जाऊंगा' बहुत फेमस रहा। कांग्रेस में वह समाजवादी विचारधारा की सोच वाले नेता थे।
राजनीति में कांग्रेस, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी या प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (ठीक से याद नहीं पडता) जैसे संगठनों से जुड़े रहे। मुझे याद पड़ता है कि बरगद या झोपड़ी चुनाव चिन्ह से चुनाव भी लड़े थे। लेबर कॉलोनी में उनके पोस्टरों की भरमार थी। वह मजदूरों और मजदूर उन्हें बहुत प्रेम करते थे। पुराने नेता बताते हैं कि एकबार उनके दिल की बाईपास सर्जरी का खर्चा खुद इंदिरा गांधी ने उठाया था। वह बड़े दिल के नेता थे। बुढ़ापे में भी ज्ञानेंद्र जी की पहचान तेवर वाले नेता के रूप में थी। ज्ञानेंद्र जी ने आरटीआई (सूचना का अधिकार) को भ्र्ष्टाचार से लड़ने का हथियार बनाया। एक समय मोतीझील चौराहा ज्ञानेंद्र मिश्रा वाला चौराहा कहा जाता था।
वह कानपुर के उन श्रमिक नेताओं में शामिल थे जिन्होंने शहर के औद्योगिक मजदूरों, विशेष रूप से वस्त्र उद्योग, चमड़ा उद्योग और रेलवे वर्कशॉप मजदूरों के अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष किया। वह भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) तथा हिंद मजदूर सभा (HMS) जैसे संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। कई बार उन्होंने मिल मालिकों और सरकार से बातचीत में मजदूरों की ओर से प्रतिनिधित्व किया। कानपुर के बंद होते उद्योगों में मजदूरों को मुआवज़ा दिलाने और पुनर्वास की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई। श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम वेतन और पेंशन जैसी योजनाओं की माँग को लेकर उन्होंने लगातार आंदोलन किए। उन्होंने कई युवा ट्रेड यूनियन नेताओं को प्रशिक्षित किया और मजदूर संगठनों में एक संयमित, संवादशील नेतृत्व की परंपरा स्थापित की।
ज्ञानेंद्र मिश्रा अपने सरल स्वभाव, अनुशासित जीवन और मजदूरों के प्रति समर्पण के लिए जाने जाते थे। उनका जीवन गांधीवादी मूल्यों और श्रमिक एकता के सिद्धांतों से प्रेरित था। उनके निधन की खबर से कानपुर के मजदूर संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में गहरा शोक है। कई यूनियनों ने इसे “मजदूर आंदोलन की अपूरणीय क्षति” बताया है। ज्ञानेंद्र मिश्रा मजदूरों की आवाज़ और संघर्ष की मिसाल थे। कानपुर की औद्योगिक भूमि ने अनेक मजदूर नेताओं को जन्म दिया है, जिन्होंने शहर की फैक्ट्रियों में काम करने वाले असंख्य श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित किया। उन्हीं में एक प्रमुख नाम था, ज्ञानेंद्र मिश्रा। उनका निधन न केवल कानपुर बल्कि पूरे श्रमिक आंदोलन के लिए एक अपूरणीय क्षति है।

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