कानपुर नगर। रविवार 06जुलाई 2025 (सूत्र/संवाददाता) सूर्य उत्तरायण, आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवशयनी एकादशी) , वर्षा ऋतु २०८२ कालयुक्त नाम संवत्सर। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, कानपुर शाखा द्वारा एक वैज्ञानिक सी०एम०ई० प्रोग्राम का आयोजन "ऑडिटोरियम, आई.एम.ए. भवन, रात्रि 8:00 बजे किया गया।
इस वैज्ञानिक सी०एम०ई० में, प्रथम सत्र के वक्ता डॉ. यू.के. मिश्रा (प्रधान निदेशक न्यूरोसाइंस, अपोलो मेडिक्स सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल और सलाहकार, विवेकानंद पॉलीक्लिनिक, लखनऊ), ने "आध्यात्मिकता का तंत्रिका विज्ञान आधार" के विषय पर व्याख्यान दिया।
प्रथम सत्र के चेयरपर्सन डॉ. आई.एन. वाजपेयी, पूर्व प्रोफेसर, न्यूरोसर्जरी विभाग, जी.एस.वी.एम. मेडिकल कॉलेज, कानपुर और डॉ. संजय महेंद्रू, वरिष्ठ परामर्शदाता मनोचिकित्सक एवं निदेशक, महेंद्रू अस्पताल, कानपुर थे।
द्वितीय सत्र के वक्ता डॉ. राजेश वर्मा, (प्रोफेसर और प्रमुख, न्यूरोलॉजी विभाग, केजीएमयू, लखनऊ) ने "भारत में मिर्गी का प्रबंधन: दौरों से आगे की बात" विषय पर अपने व्याख्यान प्रस्तुत किया - भारत में 1.4 करोड़ से ज़्यादा लोग मिर्गी से पीड़ित हैं, जिनमें से लगभग 20 लाख मरीज दवाओं से ठीक नहीं होते। लेकिन मिर्गी की देखभाल में सबसे बड़ी चुनौती सिर्फ़ चिकित्सा नहीं, बल्कि सामाजिक और प्रणालीगत है। मिर्गी को लेकर समाज में कलंक (stigma) अब भी बड़ी बाधा है। “यह छूने से फैलती है”, “यह पागलपन है”—ऐसे मिथक आज भी लोगों की सोच को प्रभावित करते हैं। इसका नतीजा होता है—देर से निदान, दवा न लेने की आदत, और सामाजिक बहिष्कार। इसलिए जन-जागरूकता और शिक्षा, इलाज जितनी ही ज़रूरी है। गलत निदान एक और गंभीर समस्या है। EEG सामान्य आने के बावजूद मिर्गी हो सकती है, और कई बार PNES या कार्डियक सिंकोप जैसे गैर-मिर्गी दौरे मिर्गी समझ लिए जाते हैं। सही निदान के लिए अच्छी तरह से ली गई मेडिकल हिस्ट्री और क्लिनिकल समझ सबसे ज़्यादा जरूरी है l दौरों के प्रकार की गलत पहचान भी आम है—जैसे बच्चों में Absence Seizures को "ध्यान भटकना" समझना। इससे गलत दवाएँ दी जाती हैं और दौरे काबू में नहीं आते। MRI जांच, खासकर मिर्गी प्रोटोकॉल के साथ, ज़रूरी है लेकिन कम इस्तेमाल होती है। वहीं मिर्गी सर्जरी, जो कई मामलों में बहुत प्रभावी है, उसका उपयोग भारत में बहुत कम है। मल्टीडिसिप्लिनरी टीम - जैसे न्यूरोलॉजिस्ट, मनोचिकित्सक, हृदय और नींद विशेषज्ञ—का सहयोग कई मामलों में ज़रूरी होता है l तकनीक जैसे सेज़़र डिटेक्टर और AI टूल्स भविष्य हैं, लेकिन इस समय हमें समय पर रेफरल, सही मूल्यांकन और जागरूकता पर ध्यान देना होगा। अंत में, मिर्गी केवल दिमाग की बीमारी नहीं है—यह सामाजिक, भावनात्मक और चिकित्सकीय कहानियों से जुड़ी हुई है। इसका समाधान सिर्फ़ दवा नहीं, बल्कि सहानुभूति, सटीकता और समझदारी भी है।
द्वितीय सत्र के चेयरपर्सन डॉ. विकास दीक्षित, वरिष्ठ कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट, कानपुर और डॉ. रजत मोहन, पूर्व एस.एम.ओ., एस.बी.आई. और वरिष्ठ चिकित्सक कानपुर थे।
तृतीय सत्र में केस प्रेजेंटेशन, डॉ. स्वांशु बत्रा (सहायक प्रोफेसर, न्यूरोलॉजी विभाग, के.जी.एम.यू.लखनऊ) द्वारा किया गया जिस्में, डॉ. स्वांशु बत्रा ने एक अनोखे मामले पर प्रकाश डाला जो, एक मनोचिकित्सक के पास विभिन्न मनोवैज्ञानिक लक्षणों के कारण प्रस्तुत हुआ और इसके बाद सुपररेफ्रैक्टरी स्टेट एपिलेप्टिकस में चला गया और कैसे कई गंभीर जटिलताओं के बावजूद एक लंबे समय तक आई.सी.यू. मे रहने के बाद रोगी को बचाया गया। इस मामले के माध्यम से, डॉ. स्वांसु ने मस्तिष्क की मनोवैज्ञानिक और जैविक बीमारियों के बीच ओवरलैप को उजागर किया और मनोचिकित्सकों और न्यूरोलॉजिस्ट को ऐसे ऑटोइम्यून एन्सेफ्लाइटिस मामलों की त्वरित पहचान और उचित प्रबंधन के लिए शिक्षित किया।
आई.एम.ए. कानपुर की अध्यक्ष डॉ. नंदिनी रस्तोगी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की तथा आए हुए सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए इन बीमारियों की गम्भीरता के विषय में बताया।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. गणेश शंकर, वैज्ञानिक सचिव, आई. एम.ए. कानपुर ने किया एवं आज के विषय पर प्रकाश डॉ. ए. सी. अग्रवाल, चेयरमैन वैज्ञानिक सब-कमेटी ने दिया, तथा अंत में धन्यवाद ज्ञापन आई.एम.ए. कानपुर के सचिव, डॉ विकास मिश्रा ने दिया। इस कार्यक्रम में डॉ. कुणाल सहाय, उपाध्यक्ष, आई.एम.ए. कानपुर एवं डॉ. कीर्ति वर्धन सिंह संयुक्त वैज्ञानिक सचिव, प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।
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